भूसा की कालाबाजारी के खिलाफ दिया ज्ञापन
ओमकार पटेल
भूसा की कालाबाजारी के खिलाफ माहिष्मति गौ सेवा रक्तदान संगठन ने मुख्यमंत्री जी के नाम कलेक्टर मंडला को ज्ञापन
(१) सड़कों पर निराश्रित घूम रही गौ माता को गौशाला में भेजकर समुचित व्यवस्था की जावे
(२) एक रुपए किलो जब गरीबों को चावल गेहूं सरकार दे रही है तो भूसा का रेट मार्केट में ₹17 रुपए किलो क्यों है
(३) सरकार गायों की भाषा की रेट पर एवं कालाबाजारी पर रोक लगाये
रवि की फसल और खरीब की फसल खेतों में परिपक्व हो जाने के
बाद किसान उसकी कटाई करवाता है।लाँक खलिहानों में आकर उसकी गहानी-उड़ानी के बाद जो भूसा बनता है,वह मवेशियों(पशुओं)का आहार होता है।उसे पशुआहार हेतु सुरक्षित किया जाना एक सामान्य और व्यवहारिक सिद्धांत है ,जो परम्परागत भी है।पहले किसान कृषि उपयोगी पशुओं का अपने खेत खलिहानों में पालन करता था।गोवंश का भी पालन करता था।जब से भारतीय कृषकों ने कृषि के क्षेत्र में याँत्रिकीकरण का प्रयोग करना आरम्भ कर दिया है,तब से भारतीय पारम्परिक कृषि पद्धति में अनेक विसंगतियाँ
प्रवेश कर गई हैं। भारतीय कृषि भूमि की भूख और प्यास बुझाने जैविक खाद और जैविक रसायनों(जैविक कीट नियंत्रकों)का प्रयोग कृषि भूमि की उर्वरकता को बनाये रखने के लिये होता था,कृषि के साथ-साथ पशुपालन कई कारणों से अनिवार्य था।किन्तु आज कृषि के क्षेत्र में याँत्रिकीकरण के कारण भारतीय पारम्परिक कृषि पद्धति अप्रासंगिक सी हो गई है,जबकि गोवंश से प्राप्त पञ्चगव्य कभी अप्रासंगिक नहीं हुआ। दूध,दही,मठा,घी,गोबर,गोमूत्र सदैव और प्रत्येक युग में प्रासंगिक रहा है।आज के भौतिक विज्ञान के इस युग में कृषि के क्षेत्र में नित नये प्रयोग होने से”प्रयोगधर्मिता”के चलते “भारतीय कृषि का पारम्परिक ढाँचा एक प्रकार से ध्वस्त हो रहा है”;यह चिंता का विषय है, इस पर गम्भीर चिंतन की आवश्यकता भी है। भारतीय कृषि वैज्ञानिक एवं भारतीय गो वैज्ञानिकों के परस्पर वैचारिक विमर्श युगानुकूल और सामयिक उपक्रम हैं।
किसानों की गोवंश के प्रति यह धारणा की”पूत न देने वाली और दूध न देने वाली गाय तथा कृषि कार्य में याँत्रिकी प्रयोग के कारण बैल की अब कोई उपयोगिता नहीं रह गई है” अर्थात् उपर्युक्त कारणों से “गोवंश अनार्थिक और अनुपयोगी हो गया है जबकि तथ्य इसके बिल्कुल विपरीत है।गोवंश कभी भी “अनार्थिक और अनुपयोगी”नहीं होता। गाय के दूध को अमृत माना गया है।उसकी हर युग में आवश्यकता है।अमृत भी कभी “अनुपयोगी” हो सकता है? क्या आर्थिक लाभ की दृष्टि से विचार करें तो गाय का दूध सबसे सस्ता उत्पादन है,जबकि गाय से प्राप्त गोबर और गोमूत्र बहुत मँहगा (बहुमूल्य)उत्पाद है।
मध्यप्रदेश के संदर्भ में यह जानकर प्रसन्नता होनी चाहिये कि- मध्यप्रदेश ही एक मात्र ऐसा भौगोलिक परिक्षेत्र है जहाँ देश के अन्य राज्यों की तुलना में सर्वाधिक जंगल है।मूक प्राणियों के जीवन रक्षा हेतु यहाँ “प्राकृतिक समीकरण”सर्वाधिक अनुकूल हैं।प्राकृतिक समीकरण के मौजूद होने के कारण यहाँ हम और आप शासन/प्रशासन के साथ मिलकर मूक प्राणियों के लिये बेहतर से भी बेहतर कर सकते हैं। मध्यप्रदेश के मूक पशुओं के आहार की जिला बंदी के निर्देश प्रशासनिक तंत्र को जारी करने का अर्थ यह नहीं है कि-कृषकों के व्यापार करने के मौलिक अधिकारों का हनन हो। *क्या मूक प्राणियों का कोई अधिकार नहीं है?,जीवन जीना उनका नैसर्गिक अधिकार है। हम प्रकृति के हर उत्पादन में अपना अधिकार जता कर मूक प्राणियों की सहज और स्वाभाविक जीवन जीने के अधिकार में हस्तक्षेप करते जा रहे हैं।मूक प्राणियों के हक की भूमि में(चरनोई या गोचर भूमि में) मानव डाका नहीं डाल रहा *?मध्यप्रदेश तो अब गोशालाओं का प्रदेश हो गया है।आज की तिथि में 1758गोशालाओं में दो लाख अठहत्तर गोवंश सुरक्षित है,क्या इनके आहार को दाम बढ़ाकर “फैक्ट्री मालिकों,उद्योग जगत् को)विक्रय कर पशु के स्वाभाविक आहार को हम ईंधन के रूप में दुरुपयोग को प्रतिबंधित न कर उसके विनष्ट करने की अबाध छूट दे दें? ” पशु आहार की जिला बंदी की पशु आहार की प्राथमिकता सुनिश्चित की जावे पहले हर जिले के पशु आहार की चिंता हो,बाद में हम व्यापार करें।”पशु आहार के दुरुपयोग को रोकना जिले के वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी की प्राथमिकता होनी चाहिए।हार्वैस्टर मशीन से फसल कटवाने के बाद खेत के “नरवई”में आग लगा देना,यह कौन सी बुद्धिमत्ता है? माहिष्मती गोसेवा रक्तदान संगठन के पदाधिकारियों के द्वारा यह ज्ञापन दिया गया है गौ पुत्र दिलीप चंद्रौल ,रिंकी अरोरा, सरस्वती सिंगौर, दीप्ति कौर, सचिन गुप्ता एवं अन्य पदाधिकारिय सदस्यगण रहे सम्मिलित