दादी जी पवित्रता की साक्षात मूर्त थीं – बी के डॉ. रीना दीदी
मनोहर
दादी हृदयमोहिनी जी का जीवन त्याग एवं सादगी से सम्पन्न था। दादी जी पवित्रता की साक्षात प्रतिमूर्ति थीं। दादी जी के संपर्क में आने वाला हर व्यक्ति जीवन में उमंग उत्साह का अनुभव करता था। दादी जी की दृष्टि पड़ते ही उनके तनाव एवं दुःख दूर हो जाते थे। दादी जी ज्ञान को बहुत ही सहज रीति से समझाती थीं। उनके जीवन मे ज्ञान पूरी तरह समाया हुआ था। उक्त विचार ब्रह्माकुमारीज ब्लेसिंग हाउस प्रभारी बी के डॉ. रीना दीदी ने ब्रह्माकुमारीज की पूर्व मुख्य प्रशासिका दादी हृदयमोहिनी जी की द्वितीय पूण्य तिथि के अवसर पर संबोधित हुए व्यक्त किये।
इस अवसर पर ब्लेसिंग हाउस में दादी जी की फ़ोटो को फूलों से सजाया गया। सुबह से ही बी के भाई बहनों ने ध्यान किया साथ ही विश्व शांति हेतु प्रार्थना की।
दिव्यता दिवस के अवसर पर दीदी जी ने सभी को जीवन में दिव्य गुण धारण करने की प्रतिज्ञा भी दिलाई।
राजयोगिनी दादी हृदयमोहिनी जी का जीवन परिचय
दादी हृदयमोहिनी जी के बचपन का नाम ‘शोभा’ था। बाद में बाबा ने आपको ‘हृदयमोहिनी’ व ‘गुलज़ार’ नाम दिए। आपका जन्म वर्ष 1928 में कराची में हुआ था। आप जब 9 वर्ष की थीं, तब संस्था के साकार संस्थापक ब्रह्मा बाबा द्वारा खोले गए ओम निवास बोर्डिंग स्कूल में दाखिला लिया। यहां आपने चौथी कक्षा तक पढ़ाई की। स्कूल में बाबा और मम्मा (संस्थान की प्रथम मुख्य प्रशासिका) के स्नेह, प्यार और दुलार से प्रभावित होकर अपना जीवन उनके समान बनाने का निश्चय किया। आपकी लौकिक मां भक्तिभाव से परिपूर्ण थीं।
मात्र चौथी कक्षा तक की थी पढ़ाई
दादी हृदयमोहिनी जी ने मात्र चौथी कक्षा तक ही पढ़ाई की थी। लेकिन तीक्ष्ण बुद्धि होने से आप जब भी ध्यान में बैठतीं तो शुरुआत के समय से ही आपको दिव्य अनुभूतियां होने लगीं। यहां तक कि आपको कई बार ध्यान के दौरान दिव्य आत्माओं के साक्षात्कार हुए, जिनका ज़िक्र आपने ध्यान के बाद ब्रह्मा बाबा और अपनी साथी बहनों से भी किया।
शांत, गंभीर और गहन व्यक्तित्व की प्रतिमूर्ति
दादी हृदयमोहिनी जी की सबसे बड़ी विशेषता थी उनका गंभीर व्यक्तित्व। बचपन में जहां अन्य बच्चे स्कूल में शरारतें करते और खेल-कूद में दिलचस्पी के साथ भाग लेते थे, वहीं आप गहन चिंतन की मुद्रा में हमेशा रहतीं। छोटी उम्र से ही आपको दिव्य लोक की अनुभूति होने लगी। आपकी बुद्धि की लाइन इतनी साफ और स्पष्ट थी कि ध्यान में जब आप खुद को आत्मा समझकर परमात्मा का ध्यान करतीं, तो आपको यह आभास ही नहीं रहता था कि आप इस ज़मीन पर हैं।
सादगी, सरलता और सौम्यता की थीं मिसाल
दादीजी का पूरा जीवन सादगी, सरलता और सौम्यता का मिसाल रहा। बचपन से ही विशेष योग-साधना के चलते दादीजी का व्यक्तित्व इतना दिव्य हो गया था कि उनके संपर्क में आने वाले लोगों को उनकी तपस्या और साधना की अनुभूति होती थी। उनके चेहरे पर तेज का आभामंडल उनकी तपस्या की कहानी साफ बयां करता था।
1969 में ब्रह्मा बाबा के निधन के बाद बनीं परमात्म दूत
18 जनवरी, 1969 को संस्था के संस्थापक ब्रह्मा बाबा के अव्यक्त होने के बाद परमात्म आदेशानुसार दादी हृदयमोहिनी जी ने परमात्म संदेशवाहक और दूत बनकर लोगों के लिए आध्यात्मिक ज्ञान और दिव्य प्रेरणा देने की भूमिका निभाई। दादीजी ने 2016 तक संस्थान के मुख्यालय माउंट आबू में हर वर्ष आने वाले लाखों भाई-बहनों को परमात्मा का दिव्य संदेश देकर योग-तपस्या बढ़ाने के लिए प्रेरित किया। एक बार चर्चा के दौरान दादीजी ने बताया था कि जब मैं मन की शक्ति से वतन में जाती हूं तो आत्मा तो शरीर में रहती है लेकिन मुझे इस शरीर का भान नहीं रहता है। उस दौरान मेरे द्वारा जो वचन उच्चारित होते हैं वह भी मुझे याद नहीं रहते हैं।
बाबा से दादीजी को हुए थे साक्षात्कार
एक साक्षात्कार के दौरान दादीजी ने बताया था कि जब वह 9 वर्ष की थीं और अपने मामा के यहां गईं थीं, तभी उनके घर ब्रह्मा बाबा का आना हुआ। यहां बाबा से उन्हें दिव्य साक्षात्कार हुआ था। आगे उन्होंने बताया कि समर्पित होने के पश्चात् बाबा हम बच्चों का इतना ख्याल रखते थे कि खुद अपने हाथ से दूध में काजू-बादाम डालकर खिलाते थे। बाबा का प्यार, स्नेह इतना मिला कि कभी भी लौकिक मां-बाप की याद नहीं आई।
14 साल तक हैदराबाद में रहकर की कठिन साधना
दादी हृदयमोहिनी जी ने 14 वर्ष तक बाबा के सानिध्य में रहकर कठिन योग-साधना की। इन वर्षों में खाने-पीने को छोड़कर दिन व रात योग-साधना में वह लगी रहती थीं। इसके साथ ही बाबा एक-एक सप्ताह का मौन कराते थे, तभी से दादीजी का स्वभाव बन गया था कि जितना काम हो, वे उतना ही बात करती थीं। अंत समय तक वह अधिकाधिक मौन में रहीं।
नॉर्थ उड़ीसा विश्वविद्यालय ने प्रदान की डिग्री
दादीजी को नॉर्थ उड़ीसा विश्वविद्यालय, बारीपाड़ा ने डी.लिट (डॉक्टर ऑफ लिटरेचर) की उपाधि से विभूषित किया है। दादीजी को यह उपाधि उड़ीसा में प्रभु के संदेशवाहक के रूप में लोगों में आध्यात्मिकता का प्रचार-प्रसार करने और समाजसेवा के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान देने हेतु प्रदान की गई।
दादी जानकी जी के निधन के बाद बनीं थीं मुख्य प्रशासिका
27 मार्च, 2020 को संस्थान की पूर्व मुख्य प्रशासिका 104 वर्षीय राजयोगिनी दादी जानकी जी के निधन के बाद दादी हृदयमोहिनी को संस्थान की मुख्य प्रशासिका नियुक्त किया गया था। अस्वस्थ होने के बाद भी दादीजी को दिन-रात लोगों का कल्याण करने की भावना लगी रहती थी। दादीजी मुंबई से ही संस्थान की गतिविधियों का सारा समाचार लेतीं और समय प्रति समय निर्देशन देतीं।
सुबह 3 बजे से शुरू हो जाती थी दिनचर्या
दादीजी हमेशा 3 बजे ब्रह्ममुहूर्त में उठ जाती थीं। इसके साथ ही उनकी दिनचर्या की शुरूआत साधना के साथ होती थी। यहां तक कि चलते-फिरते, खाते-पीते ईश्वर के ध्यान में मग्न रहतीं।
12 लाख भाई-बहन और 46 हज़ार बहनों की थीं आदर्श
ब्रह्माकुमारीज़ से देश-विदेश में जुड़े 12 लाख भाई-बहनों और 46 हजार समर्पित ब्रह्माकुमारी बहनों की दादीजी आदर्श थीं। उनके द्वारा उच्चारित एक-एक शब्द लाखों लोगों के जीवन को बदलने और आगे बढ़ाने के लिए वरदानी बोल होते थे। अस्वस्थ होने के बाद भी दादीजी अंतिम समय तक लोगों को प्रेरित करती रहीं।
140 देशों में योग-साधना से दी श्रद्धांजलि
दादीजी के देवलोकगमन के बाद ब्रह्माकुमारीज़ संस्थान के देश-विदेश में स्थित सेवाकेंद्रों पर अखंड योग-साधना का दौर जारी रहा था। सभी ने योग के माध्यम से दादीजी को अपने शुभ वाइब्रेशन और श्रद्धांजलि अर्पित किया था।
डॉक्टरों का विशेष अनुभव
मुंबई के सैफी हॉस्पिटल में दादीजी का इलाज करने वाले डॉक्टर्स डॉ. दीपेश अग्रवाल, डॉ. प्रसन्ना, डॉ. आकाश शुक्ला, डॉ. निपुन गंगवाला, डॉ. मनोज चावला, डॉ. जिगर देसाई ने अपने-अपने अनुभव बताते हुए कहा कि हम खुद को भाग्यशाली समझते हैं कि हमें दादीजी जैसी दिव्य और महान आत्मा का इलाज करने का मौका मिला। हमारे जीवन का यह पहला अनुभव रहा है कि किसी मरीज के इलाज के दौरान दिव्य अनुभूति हुई। जैसे ही दादीजी के रूम में जाते थे तो मन को शक्तिशाली फीलिंग होती थी। बीमारी के बाद भी दादीजी के चेहरे पर कभी दर्द, दु:ख या उदासी की फीलिंग नहीं देखी। दादीजी के साथ के अनुभव को शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है।
दादीजी के जीवन की अनमोल शिक्षाएं
– दादीजी कहती थीं कि परेशान होने के पांच शब्द हैं – पहला है क्यों… क्यों कहा और व्यर्थ संकल्पों की क्यूं चालू हो जाती है, इसने ये कहा, उसने ये कहा और मन में व्यर्थ संकल्प चालू हो जाते हैं। क्योंकि जो बीत चुका वह हमारे हाथ में नहीं है। फ्यूचर ही हमारे हाथ में है। क्यूं, क्या, कौन, कब और कैसे… ये पांच शब्द हमें परेशान करते हैं। खुशी के जाने के यह पांच शब्द ही हैं।
– हर कार्य में सफल होने का एक ही मूलमंत्र है – दृढ़ता। यदि जीवन में दृढ़ता है तो सफलता निश्चित है, हुई पड़ी है। इसलिए प्लानिंग करके उसे पूरा करने के लिए दृढ़ संकल्प करें। मेरे जीवन का अनुभव है कि जो भी कार्य किया है वह दृढ़ता के साथ किया है और सदा सफलता भी मिली है। दृढ़ता रूपी चाबी को हमेशा संभालकर रखें।